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कविता

शब्दों में आँसू नहीं आते गनीमत है स्याही नहीं पसरती

कुमार अनुपम


पिछली डायरी के पन्ने कई खाली रहते रहे

उनमें भरी रही अकसर भाप

संघनित हो कभी-कभार

टपकती रही एक दो बूँद देर रात

 

कि आ जाता रहा एक और नया साल

 

तब तक जश्न उरूज पर थे कैमरे मुस्तैद

महफिलें इतना चालू और इतना ‘सेक्सी लुक’ (अब यह

उत्तर-आधुनिक कॉप्लीमेंट कोड है, ध्यान रहे, गाली नहीं!)

और इतना ढाँ ढाँ ढिचुक और इतनी आतिशबाजियाँ

फूटती रहीं धमाकेदार कि कंधार के बमों

को अपनी गूँज की बाबत

नए सिरे से सोचने

पर होना पड़ा मजबूर और इतना जाज

और इतना उन्माद और इतना पॉप

और इतना निर्द्वंद्व और इतना उत्तेजक एक ही समाचार

कि तोड़ते हुए पिछले साल का रिकॉर्ड

हमारे देश के सिर्फ एक ही महानगर

में छह सौ करोड़ की शराब और दो सौ करोड़ की सिगरेट

का सिर्फ एक ही रात में हुआ सफल कारोबार...

 

आती रही एक से बढ़कर एक विकासवादी खबर

प्रसारण चालू आहे!

 

‘बीयर नाइट्स’ के बाहर लगे स्क्रीन पर नजर गड़ाए गड़ाए

फुटपाथ पर पड़े

देश के लगभग ... अरब भुक्खड़ निरुपाय

लोलुप लरिकाई में स्खलित हो किसी नीमकश नशे और विकट ठंड

और शर्म-मय गर्व और धुएँ की चादर तान

इतना निश्चिंत होकर सो गए कि

विकास की व्यंजना में जाने ही कहाँ खो गए

कि उन्हें कुछ पता ही नहीं चल सका...

 

उनके जर्जर फेफड़ों और रक्तहीन स्वप्नों की अंतिम भाप

भरती रही

नई डायरी के कोरे सफे...।

 

* पंकज सिंह की वहीं सेकविता की एक पंक्ति साभार।


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